Wednesday, September 16, 2009

हाँ तो यह है मेरा तजुर्बा बुक फेयर का। एक संस्था है एकलव्य (www.eklavya.in) जो प्रदर्शनी में शामिल थी। वहाँ एक व्यक्ति मिला जो शायद hamaara परिचेय हमारे देश से करा सके.शायद हम हिन्दी स्कूलों में सीखते हैं और अपनी अंग्रेज़ी की मिलावट से इसे प्रदूषित कर देते हैं.किन्तु इस व्यक्ति की भाषा इतनी सरल और शुद्ध थी की पाँच साल संस्कृत पढने के बावजूद मुझे उससे बात करने में संकोच हो रहा था। हम शायद गैर अंग्रेज़ी भाषी व्यक्तियों को हीन और अधूरा समझते अं। किन्तु इस हिन्दी भाषी व्यक्ति ने मुझे इस प्रकार का कोई भी आभास नहीं दिलाया।

इतना आत्म सम्मान उनही में हो सकता है जो अपने ज्ञान और दिशा के विषये में बहुत सिक्योर हो। शायद यही सही मायेने में ज्ञान है- जो भाषा का मोहताज नहीं।

में गांधीजी की एक किताब दूंद रही थी जो मुझे कहीं नहीं मिल रही थी। जब मैंने इस व्यक्ति से इसके बारे में पुछा तो यहाँ भी मुझे निराशा किंतु एक अजीब सा आभासहुआ। हम शायद गांधीजी के बारे में किताबों में पढ़ते हैं और उन्हें पर्वों पर याद करते हैं। वे बापू हैं, राष्ट्र पिता हैं । लेकिन जिन लोगों से में आज मीली उनके लिए गांधीवाद एक साँस लेता हुआ आदर्श है। उन्हें NCERT की आवश्यकता नहीं। वे गांधीजी के बारे में संकोच se नहीं बोलते जैसे शायद शहरों के लोग बोलते हैं क्योंकि गांधीवाद इनके लिए राजनीति है, समाज व्यवस्था नहीं।
पहली बार अपने ही शहर में लगा की हम शायद यहाँ के नही हैं। इस स्वतंत्र देश के वासी तो हैं किंतु सोच se शायद अभी भी आधीन हैं। हम तो उन पर्येतकों से भी पीछे हैं जो कम से कम इस देश के बारे में पढ़कर इस देखने आते है। हम अभी भी किताबी भारत को ही जानते हैं क्योंकि वह हमारी पढाई का हिस्सा है। सौ करोरकी आबादी का आंकडा तो जानते हैं पर यह सोचने की भूल भी करते हैं की या तो यह सौ करोर हमारे जैसा है और या एक गाँव के किसान है। अध्यापक, कवि, बुनकर, कारीगर या गाँव का डाकिया तो वह हो ही नहीं सकता। और गांधीजी की लिखी सभी किताबों का जानकार - कदापि नहीं।
शायद यही मेरी इस बुक फेयर की सबसे बढ़ी खोज थी।

Sunday, September 6, 2009

Inner Eye

A friend recently asked me to clarify the header of this blog - inner eye looking outwards. In his opinion the inner eye or 'antarmann' as we say in hindi is an introspection of the self from within. That seemed to me like a 360 feedback on oneself. And while its not counter productive, I would say that it is limited in its realm. So here's what I meant by what I wrote.
Its an out of body experience... like letting your mind out as a tourist amongst the physical bazaar that we encounter everyday. This juxtapositioning of the physical and the meta physical is the lens through which I am trying to pick things out. It creates for me a million meeting points of the two worlds- inner and outer. A Deja vu that just does not end. Like two people participating in the same event.
Choices become so much easier, conclusions instant and one gets a feeling of getting away with it. Just like an invisible person would. Iam just trying to make an effort to align my two worlds. The resonance has to be tremendous. Invisible being, inner beings, extra terristial beings may see a glass half full,but then again the other half wasn't really empty- air was there ! Possiblities are limitless.